पाइंता पर्व पर कोरोना का असर, सीमित दायरे में ग्रामीणों ने निभाई गागली युद्ध की परंपरा

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विकासनगर। वैश्विक महामारी कोविड 19 के वायरस का असर इस बार तीज-त्योहारों पर भी पड़ा है। जनजातीय क्षेत्र जौनसार बाबर के उदपाल्टा और कुरौली गांव में मनाए जाने वाले पाइंता पर्व पर भी इसका व्यापक असर देखने को मिला। ग्रामीणों ने देवधार स्थल पर पश्चाताप को केवल गागली युद्ध कर परंपरा निभाई। कंलक से बचने के लिए उदपाल्टा और कुरौली के ग्रामीण हर साल गागली युद्ध का आयोजन कर पश्चाताप करते हैं, लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते आयोजन को सीमित दायरे में किया गया। परंपरा निभाने के लिए ग्रामीणों ने सुबह दो बहनों मुनि एवं रानी की मूर्तियों की पूजा की। उसके बाद गांव के नजदीक पुणे में दोनों बहनों की मूर्तियों को विसर्जित किया।
वहीं, उदपाल्टा और कुरौली के ग्रामीण ढोल-नगाड़ों की थाप पर गागली युद्ध के लिए देवदार स्थल के लिए रवाना हुए। इस दौरान ग्रामीणों के हाथ में गागली के पत्ते और डंठल लहरा रहे थे। हालांकि, युद्ध को लेकर दोनों गांव के लोगों में उत्साह देखा गया। इस अनूठे युद्ध को देखने के लिए इस बार बाहर से लोग नहीं आए। खत सयाणा राजेंद्र सिंह राय का कहना है कि इस बार दोनों गांव ने पहले ही तय कर लिया था कि इस पर्व को बड़े स्तर पर नहीं मनाया जाएगा। केवल युद्ध की परंपरा सीमित दायरे में निभाई जाएगी। इस युद्व के पीछे मान्यता है कि लगभग 400 साल पहले उदपाल्टा गांव की दो परिवारों की रानी और मुनि नाम की दो कन्याएं थी। गांव में पानी की सुविधा न होने के कारण लोग कुएं से पानी भरा करते थे। जहां पर दोनों कन्याएं कुएं में पानी भरने गई। जिसमें एक कन्या रानी पानी भरते समय पैर फिसलने से कुएं में गिर गई और डूब गई। जिससे उसकी मौत हो गई। उधर, दूसरी कन्या मुनि ने गांव पहुंचकर लोगों को रानी के कुएं में डूबने की बात बताई। जिस पर ग्रामीणों ने उसे खूब डांट फटकार लगाई। जिससे सुनकर मुनि क्षुब्ध हो गई। इतना ही नहीं उसने भी उसी कुएं में जाकर छलांग लगा दी और अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। इस घटना के बाद दोनों गांव के लोग घास के पुतले बनाकर अष्टमी के दिन पूजा-अर्चना करते हैं। विजयादशमी के दिन गाजे-बाजे के साथ सभी ग्रामीण हाथ में दोनों लड़कियों की घास से बनी प्रतिमाएं लेकर विसर्जित भी करते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि दोनों परिवारों में आपस में झगड़ा हुआ होगा। साथ ही एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे होंगे। जिसके बाद यह परंपरा आज भी गागली के डंठलों से युद्धकर निभाई जाती है। गांववालों के अनुसार इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए यह परंपरा तब समाप्त होगी, जब पाइतां पर्व पर दोनों परिवारों के घर में अलग-अलग दो कन्या जन्म लेगी।

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