जीत सिंह का हरा सोना – पहाड़ों को लौटे बेरोजगारों के सपनों को ऐसे मिलेगी जीत

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लॉक डाउन और महामारी के डर से उत्तराखंड के पहाड़ों में वापस लौट रहे बेरोजगार नौजवानों के लिए जीत सिंह प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं। पहाड़ों में रोजगार के साधन नहीं हैं और खेती से पेट नहीं भरता इस कहावत को झूठलाते हुए काश्तकार जीत सिंह ने जो मिसाल पेश की है वह इस वक्त बेरोजगारी के बुरे दौर से गुजर रहे और मैदानों से वापस पहाड़ों की तरफ लौट रहे युवाओं के लिए गहरे अँधेरे में उजाले की एक किरण सी है, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा गांव लौट कर आ रहे बेरोजगारों के लिए चलाई जा रही योजनाओं को ऐसे काश्तकारों के साथ मिलकर योजनाबद्ध किया जाए तो बेरोजगारी की समस्या से फिलहाल तो निजात मिल ही सकती है।

गिरीश गैरोला

उत्तरकाशी के चिन्यालीसौड़ तहसील निवासी जीत सिंह राणा ने परंपरागत खेती कार्य को से हटकर नगदी फसलों की तरफ अपना रुख किया है। उद्यान विभाग , कृषि विभाग और कृषि विज्ञान केंद्र ने भी उन्हें भरसक मदद की  है। यही वजह है कि आज जीत सिंह अपने इलाके में किसान और काश्तकारों के लिए मास्टर ट्रेनर बने हुए हैं । विभागीय योजनाओं के साथ-साथ उन्हें स्थानीय स्तर पर कैसे उपयोग में लाना है इसके लिए लोग इनकी सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं। 

अपने चार नाली के खेत में धान बोने के बजाय इस बार जीत सिंह ने फूलों की खेती शुरू की थी जीत सिंह बताते हैं कि 2 तरह के रोज, रोज  सुप्रीम और रोज ग्लोडोलाई  फूल के 2200 पौधे लगाए गए थे । एक कली 50 से 100 रू के बीच बिक जाती है, ये फूल टूटने के बाद भी कई दिनों तक बढ़ते रहते है, इस प्रकार उन्हें एक लाख दस हजार का नुकसान ओला वृष्टि और लौक डाउन के चलते सिर्फ रोज के फूलों से ही हो चुका है। उन्हें उम्मीद थी इस बार शादी ब्याह और पार्टियों के सीजन में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध फूलों से न सिर्फ उनकी आर्थिक स्थिति ठीक होगी बल्कि उनके प्रयासों से अन्य काश्तकार भी प्रेरित होकर फूलों की खेती में अपना भविष्य तलाश करेंगे । अचानक  हुए लौक डाउन के  चलते फूलों की खुशबू महक आने से पहले ही खेतों में ही सूख गई । शादी ब्याह निरस्त हो रही हैं ऐसे में फूलों से इस बार उम्मीद करना बेमानी है । उन्होंने बताया कि विज्ञान केंद्र  और उद्यान विभाग ने उन्हें बीज देने में मदद की है ।

फूलो के अलावा  जीत सिंह सब्जी उत्पादन भी लंबे समय से कर रहे हैं पिछले वर्ष एक लाख रुपए के खीरा  उनके द्वारा बेची गई थी,  इस वक्त दो लाख रु के खीरे  बेचने का लक्ष्य उनके सामने है । इसके अतिरिक्त  बीन्स  छप्पन  कद्दू आज भी उनकी खेतों में तैयार है । गंभीर सिंह जैसे अन्य किसानों ने भी उनसे प्रेरित होकर परंपरागत खेती के स्थान पर कैश क्रॉप को अपना रहे है।कोरो ना  महामारी के दौर में जब मैदानी क्षेत्रों से रोजगार छूटने के बाद लोग पहाड़ों की का रुख कर रहे हैं ऐसे में जीत सिंह इस नई बीड़ी के लिए प्रेरणा स्रोत साबित हो सकते हैं

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