“पुलिस पर सवाल क्यों उठते हैं? पहाड़ में इज्जत, मैदान में खौफ… आखिर फर्क क्यों?”

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“अपराधियों में खौफ, आम लोगों में भरोसा… यही तो असली कानून-व्यवस्था है!”

“अपराधियों में पुलिस का खौफ होना चाहिए, आम लोगों में सुरक्षा का भाव… जबकि हालात इसके उलट हैं।”

ये एक वाक्य नहीं… एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिसे सुनकर दिल कांपता है। सवाल ये है कि जब पुलिस का नाम सुनकर ईमानदार लोग ही कांपने लगें, तो फिर अपराधियों को किसका डर?

आज हालात ये हैं कि अपराधी थाना परिसर के बाहर चाय की दुकानों पर सेटिंग का गेम खेल रहे हैं, और शरीफ लोग चौकी के भीतर जाने से डरते हैं। ये तस्वीरें सिर्फ अखबारों या चैनलों की हेडलाइन नहीं हैं, ये हमारी आंखों के सामने रोज़ घट रही हकीकत है।


पहाड़ों की पुलिस से क्यों डरता है सिस्टम?

अब उत्तराखंड को ही देख लीजिए। पहाड़ी जिलों में अगर किसी पुलिसवाले ने बिना वजह किसी आम आदमी पर हाथ उठा दिया — तो पूरा पहाड़ जाम हो जाएगा। हर चौराहा, हर बाज़ार पुलिस के खिलाफ आवाज़ से गूंज उठेगा। क्योंकि वहां लोग इज्जत और इंसाफ के लिए लड़ना जानते हैं।

लेकिन सवाल उठता है — मैदानी जिलों में ऐसा क्यों नहीं होता?
वहां कोई पुलिसवाला किसी पर हाथ उठा दे, तो मामला या तो दबा दिया जाता है या पीड़ित चुपचाप सिस्टम के डर में घुटता रहता है। आखिर क्यों?

क्या मैदान के लोग डर गए हैं?
या फिर पहाड़ के लोग ज्यादा जिगरवाले हैं?
या फिर सिस्टम ही दोहरी मानसिकता से चलता है?


कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए!

हमारे संविधान ने साफ कहा है — कानून सबके लिए बराबर है। फिर मैदान और पहाड़ में ये फर्क क्यों?
क्या पुलिस का असली काम जनता की सुरक्षा करना नहीं है?
क्या वर्दी सिर्फ अपराधियों में खौफ पैदा करने के लिए नहीं पहनी जाती?
तो फिर आम आदमी ही पुलिस का डर क्यों महसूस कर रहा है?


“वर्दी का मतलब डर नहीं, भरोसा है!”

हमें ये समझना होगा कि वर्दी का मतलब लाठी का जोर नहीं, भरोसे की डोर है।
पुलिस वही है, जो गुनहगार को सलाखों के पीछे डाले और बेगुनाह को सीना तानकर इंसाफ दिलाए।

“डर पैदा करो… मगर सिर्फ गुनहगारों में।
इज्जत कमाओ… मगर आम आदमी के दिल में।”

यही असली पुलिसिंग है। यही वो रास्ता है, जिससे समाज सुरक्षित, मजबूत और न्यायपूर्ण बनता है।


एक नई सोच की जरूरत है…

आज जरूरत है एक नई सोच की — पुलिस और जनता के रिश्तों में भरोसे की नींव डालने की।
जरूरत है सिस्टम को ये याद दिलाने की कि पुलिस जनता के लिए है, न कि जनता पुलिस के लिए।

पहाड़ के लोगों की तरह मैदान में भी आवाज़ उठानी होगी — अन्याय के खिलाफ, मनमानी के खिलाफ, और ग़लत सिस्टम के खिलाफ।

क्योंकि इंसाफ मांगना कोई जुर्म नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है।


अंत में…

अगर हम चुप रहेंगे, तो चाय की दुकान पर बैठकर सेटिंग करने वाले अपराधी ही जीतेंगे।
अगर हम आवाज़ उठाएंगे, तो कानून भी जगेगा और सिस्टम भी सुधरेगा।

याद रखिए —

“वर्दी का खौफ अपराधियों पर होना चाहिए, न कि आम जनता पर।”

क्या आप तैयार हैं अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए?

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