जब फूल बन गए प्रसाद -टकनौर की संस्कृति

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पहाड़ी मेले संस्कृति के वाहक और मनोरंजन के साधन।

टकनौर के रैथल गाव में फुलाई मेला गवाह है इंसानों का देवताओं से रिश्ते का।

गिरीश गैरोला

उत्तरकाशी का टकनौर इलाका आज भी अपनी संस्कृति की अलग पहिचान बनाये हुए है। राजशाही के समय से चली आ रही पंच मालगुजार व्यवस्थाओं को बदलते हुए दौर में संस्कृति के संरक्षण में इसी  रैथल गांव में प्रयोग किया जा रहा है।
उत्तराखंड के पहाड़ो की संस्कृति यहाँ के जलवायु के अनुरूप ही है। खेत के काम निपटाने के बाद जब कुछ खाली समय मिलता है तो ग्रामीण ससुराल गयी बेटियों को भी मेले में सामिल होने के लिए मायके आने का न्योता भेजते है । मेले में देव डोलिया भी नृत्य करती है , इंसानों के हालचाल पूछती है उनकी समस्याओं के समाधान भी करती है।
रैथल का फुलाई मेला भी पांच गांव की पहिचान है। पौराणिक नागदेवता मंदिर में मेला लगता है। तीन दिन पूर्व कुछ विषेष लोग  ऊंची पहाड़ियों से देव पुष्प जयांण और ब्रह्मकमल लेकर आते है । मैदान में इस फूलों को सजाया जाता है। फिर पांच गाँव के आराध्य देवता समेश्वसर देव की डोली में कंपन सुरु होता है । शंख,  घंटे और सीटी की आवाज से देवता प्रशन्न होते है। जैसे ही डोली इन फूलों के ऊपर से गुजरती है तो यही फूल देव प्रसाद बन जाते है जिन्हें लोग आपस मे बांट लेते है।
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