मंदिरों की सीरीज से पर्यटन की उम्मीद।
लुप्त हो रहे पौराणिक मंदिरों को सहेजने की जरूरत।
मंदिरों का इतिहास बन सकता है धार्मिक पर्यटन का आधार।
गिरीश गैरोला
देव भूमि उत्तराखंड का महत्व मंदिरों कल लेकर ही है। मंदिरों के दर्शन के लिए यहाँ पहुँचने के बाद ही इंसान को प्रकृति के इस खूबसूरत रूप को देखने को मिला। बदलते दौर में हम पौराणिक मंदिरों को भूलते जा रहे है। जबकि सत्य ये है कि चार धाम यात्रा के नाम को पर्यटन से जोड़ने वाले भी बेहतर समझते है कि चारधाम के ये मंदिर सिर्फ आस्था और विश्वास का प्रतीक ही नही है बल्कि लाखो लोगो की आर्थिकी से भी जुड़े है, फिर चाहे वे किसी भी धर्म अथवा समुदाय से जुड़े हो। 2013 कि देवी आपदा के बाद मंदिरों को जानेवाले मार्ग बंद होने के बाद जब लाखो लोगो की रोजी -रोटी पर संकट मंडराने लगा तब अर्थ जगत के पंडितों ने भी सवीकार किया कि ये धर्म के प्रतीक मंदिर किसी न किसी रूप में लाखों लोगों के घर का चूल्हा जलाने के भी माध्यम बने हुए है। ऐसे में जरूरत है मंदिर समूह की सीरीज तैयार करने की ताकि धर्म को पर्यटन के साथ लोगो की आर्थिकी से भी जोड़ा जा सके। ताकि प्रसाद के रूप में सभी को कुछ न कुछ रोजगार मिल सके।
महान संत और ऋषि जड़भरत के नाम से शिव नगरी उत्तरकाशी में एक घाट बना हुआ है। घाट के पास में ही ऋषि जड़भरत का मंदिर भी है जो अब जीर्ण शीर्ण हो गया है। टूटी फूटी चार दिवारी में घास जम रही है किन्तु इतिहास की इस धरोहर के मिटने की चिंता कही दिख नही रही है।
सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ व्यापारी अजय बड़ोला बताते है कि मंदिर के पास ही संत जड़भरत में तप करते हुए ही समाधि ली थी। समाधि स्थल पर निर्माण कार्य की टाइल रखकर इसका उपयोग एक स्टोर के रूप में किया गया है। दिन भर में सैकड़ो लोग घाट पर स्नान के बाद यहाँ पूजा करते है। जड़ भरत मंदिर में भी दिया जलाते है किंतु न कही इस संत को जानने की इच्छा दिखती है और न मंदिर के जीर्णोद्धार की।
Bilkul sahi baat hai hona chahiye