उत्तरकाशी के डूँड़ा कस्बे मे बौद्ध पंचाग के अनुसार नए साल के स्वागत में मनाए जाने वाले लोसर पर्व की धूम दिखाई दे रही हैं। तीन दिन तक चलने वाले इस लोसर पर्व में दीपावली, दशहरा एवं आटे की अनूठी होली भी देखने को मिलती है
बौद्ध पंचांग के अनुसार हर साल फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से नए साल का शुभारंभ होता है। जाड भोटिया समुदाय के लोग लोसर पर्व के साथ नए साल का स्वागत करते हैं। जनपद में भारत-चीन सीमा पर नेलांग एवं जाढ़ूंग गांव से विस्थापित होकर हर्षिल, बगोरी और डुंडा में बसे जाड भोटिया लोग इस पर्व को विशेष उत्साह के साथ मनाते हैं।
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पहले दिन चीड़ के छिल्लों से बनी मशालें जलाकर दीपावली मनाई जाती है।
दूसरे दिन आटे से कैलाश पर्वत और इसके चारों ओर परिक्रमा करते पशु बनाकर इन्हें चावल से बनी छंग का भोग लगाया जाता है।, जबकि तीसरे दिन आटे से होली खेलकर सुख समृद्धि की कामना की जाती है।
इस दौरान लोग अपने घरों पर लगी पुराने झंडों को हटाकर नए झंडे लगाते हैं। झंडों पर मंत्रों के माध्यम से भगवान की आराधना कर आशीर्वाद लिया जाता है।
लोसर के दौरान समुदाय की आराध्य रिंगाली देवी की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। पारंपरिक वस्त्रों में सजे लोग रांसो एवं तांदी नृत्य पर जमकर झूमते हैं।
चंद्रमा की परिक्रमा पर आधारित बौद्ध पंचाग में लोसर को नववर्ष का आगमन माना जाता है। तिब्बती भाषा में ‘लो’ का मतलब नया और ‘सर’ का मतलब साल होता है। बौद्ध परंपराओं का पालन करने वाले तिब्बती, भूटानी समुदाय के लोग इस त्योहार को मनाते हैं। तिब्बत में यह त्योहार 15 दिन तक चलता है, लेकिन उत्तरकाशी सहित कुछ अन्य स्थानों पर अब केवल तीन दिन तक ही पर्व को मनाया जाता है।